गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मानव की मधुमेह पर विजय की अमर गाथा.........इन्सुलिन की खोज

हम मधुमेह पर बातचीत कर रहे हैं और इन्सुलिन के खोज की अनूठी और अमर दास्तान की चर्चा करें, यह ठीक नहीं होगा। यह मधुमेह की इस -पुस्तक के साथ भी अन्याय होगा। प्राचीन काल में हमारे महान आयुर्वेद शास्त्री सुश्रुत ने मधुमेह के बारे में बहुत कुछ लिखा है। 1500 वर्ष ईसा पूर्व पापायरस (प्राचीन कागज़) पर  मधुमेह के उपचार के कई नुस्के लिखे हुए मिले थे। अरेटियस ने दूसरी शताब्दी में मधुमेह के बारे में बताया था कि इस रोग में शरीर का मांस गलकर मूत्र द्वारा निकल जाता है और अन्ततः रोगी की मृत्यु हो जाती है।
उन्नीसवीं शताब्दी में यह देखा गया कि डायबिटीज से मरने वाले रोगियों का पेन्क्रियास  अक्सर क्षतिग्रस्त होता था। 1869 में युवा चिकित्सक पॉल लेंगरहेम्स ने पाया कि पेन्क्रियासजिसका मुख्य कार्य पाचन रस बनाना है, में कुछ विशिष्ट तरह की कोशिकाओं के झुंड होते हैं। ये पूरे पेन्क्रियास  में फैले होते हैं और इनका कार्य अभी तक किसी को मालूम नहीं था। कालांतर में हुई खोज से स्पष्ट हो गया था कि कोशिकाओं के इस झुंड में कुछ कोशिकाएं, जिन्हें बीटा कोशिकाएं कहा गया, इन्सुलिन का  स्राव करती हैं। कोशिकाओं के इस झुंड को आइलेट्स ऑफ लेंगरहेम्स" नाम दिया गया क्योंकि इस झुंड को पहली बार इन्होंने ही पहचाना था।
सन् 1889 में अपने परीक्षणों से फिजियोलोजिस्ट मिनकोस्की और चिकित्सक वोन मेरिंग ने यह सिद्ध कर दिया था कि यदि कुत्ते का पेन्क्रियास  निकाल दिया जाये तो कुत्ते को डायबिटीज हो जाती है। लेकिन यदि कुत्ते के पेन्क्रियास  की नलिका, जिसके द्वारा पाचन रस आंत तक पहुंचता है, को बांध दिया जाये तो कुत्ते को थोड़ी पाचन संबम्धी तकलीफ जरूर होती है पर डायबिटीज नहीं होती है। इससे उन्होंने यह निष्कर्ष    निकाला कि शरीर में पेन्क्रियास  के कम से कम दो कार्य हैं। एक पाचन रस बनाना और दूसरा कोई अज्ञात तत्व बनाना जो रक्त शर्करा को नियंत्रित करता है। यदि इस अज्ञात तत्व को पहचान लिया जाये तो डायबिटीज के सारे रहस्य परत दर परत खुलते चले जायेंगे।
परंतु उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर तक डायबिटीज एक गम्भीर और लाइलाज महामारी मानी जाती रही।  इसके कारणों का पता लगाने के लिये विश्वभर में वैज्ञानिक और चिकित्सक शोध कर रहे थे, पर कहीं से भी  कोई अच्छे परिणाम सामने नहीं आ रहे थे। तब 14 नवंबर, 1891 को कनाडा में एलिस्टन, ओनारियो के मेहनती और अमीर कृषक परिवार में एक महान सितारा पैदा हुआ, जिनका नाम था फ्रेडरिक बेंटिंग। उनका परिवार उत्तरी आयरलैंड से आकर ओनारियो  में बसा था। बेंटिंग लिखायी पढ़ाई में ज्यादा तेज-तर्रार नहीं थे और मुश्किल से ही हाई स्कूल पास कर सके थे।  फिर बैंटिग ने विक्टोरिया कालेज के आर्टस संकाय में प्रवेश लिया और पहली छमाही परीक्षा में ही जनाब फेल हो गये।
परिवार वालों ने उन्हें समझाया, बुझाया, सांत्वना दी और अपने प्रभाव से टोरोन्टो यूनिवर्सिटी के मेडीसिन स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। लेकिन मेडिकल स्कूल ने उसे हिदायत दी कि उन्हें आर्टस स्कूल में जाकर पुनः परीक्षा पास करने पर ही यह प्रवेश मान्य होगा।  मेडिकल स्कूल में भी वह कभी अच्छे अंक प्राप्त नहीं कर सके। तभी प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया और वे कनाडा की सेना में भर्ती होना चाहते थे। वे साक्षातकार देने भी गये पर दो बार तो उनकी नजर खराब होने के कारण उन्हें वापस भेज दिया गया।  तीसरी बार उन्होंने फिर प्रयास किया, इस बार वे सेना में भर्ती होने में सफल हो ही गये। इसके साथ उन्होंने अपना अध्ययन भी जारी रखा। मेडीसिन स्कूल से पास होते ही वह सेना में मेडीकल ऑफिसर के पद के लिए चुन लिए गये। 1917 में उनको सेना के एक खास मिशन पर विदेश भेजा गया जिसमें उन्होंने अपनी बहादुरी का परिचय दिया। रोगियों की सेवा  करते करते एक बार वे घायल भी हो गये थे।  उनकी बहादुरी के लिए उन्हें मिलेट्री क्रॉस" पुरस्कार दिया गया।

1919 उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और  लन्दन, ओनारियो में मेडिकल प्रेक्टिस शुरू कर दी। यहां उन्होंने अपनी पुरानी मित्र एडिथ से सगाई भी की। इसके साथ ही उन्होंने पश्चिमी ओनारियो के विश्वविद्यालय में ऑर्थोपेडिक्स विभाग में  विख्याता का पद स्वीकार कर लिया और प्रोफेसर विल्सन की रिसर्च टीम में भी शामिल हो गये।  लेकिन वे अच्छा व्याख्यान नहीं दे पाते थे। उन्हीं दिनों एक बार उन्होंने मेडिकल जर्नल में मोसेज बेरोन का लेख पढ़ाजिसमें यह परिकल्पना की गई थी कि यदि मिनकोस्की के प्रयोगों को आगे बढ़ाया जाये तो पेन्क्रियास से निकलने वाले स्राव को अलग किया जा सकता है, जिससे मधुमेह का इलाज किया जा सके। 
बेंटिग इस लेख से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने इस विषय पर काफी चिंतन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि पेनक्रियाज में बनने वाले पाचन रस हो न हो आइलेट्स ऑफ लेंगरहेम्स"  में बनने वाले अज्ञात स्राव को नष्ट कर देते हों। इसलिए वे  पेनक्रियाज की नलिका को बांध देना चाहते थे, इससे पेनक्रियाज क्षतिग्रस्त होगी, सिकुड़ जायेगी और पाचन रस बनाना बंद कर देगी। फिर इस पेनक्रियाज से अज्ञात स्राव को निकाल लिया जायेगा जिससे डायबिटीज के रोगियों का इलाज किया जा सकता है। प्रोफेसर विल्सन ने बेंटिग को टोरोंटो विश्वविद्यालय में फिजियोलोजी के प्रोफेसर जे.जे.आर. मेक्लियोड से मिलने की सलाह  दी और कहा कि वे उन्हें परीक्षण करने के लिए प्रयोगशाला उपलब्ध करवा लकते हैं।
बेंटिग ने प्रोफेसर मेक्लियोड को अपनी परिकल्पना बताई। पहले तो वे बेंटिग पर भड़के और फिर बोले, “क्या तुम पागल हुए हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि बड़े बड़े महारथी सूरमां बरसों से इस विषय पर रिसर्च कर रहे हैं और आज तक किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ है तो तुम जैसा अनुभहीन व्यक्ति कौन से तीर मार लेगा।परंतु बेंटिग ने हार न मानी, मेक्लियोड को मनाने का हर संभव यत्न किया, खूब मिन्नते की। वे माने तो जरूर पर झुंझला कर बोले, " ठीक मैं तुम्हें दो महीने के लिए एक पुरानी प्रयोगशाला और परीक्षण करने के लिए कुछ कुत्ते दे देता हूं। पर याद रहे ठीक दो महीने बाद तुम्हें प्रयोगशाला खाली करनी पड़ेगी। (वे थोड़ा रुके और बेंटिंग को ऊपर से नीचे तक देख फिर बोले)  पर तुम्हें रसायनशास्त्र का ज्यादा ज्ञान भी नहीं है, मैं कौशिश करता हूं कि तुम्हारी सहायता के लिए एक रसायनशास्त्री को नियुक्त कर दूं।

27 फरवरी, 1899 को वेस्ट पेम्ब्रोक, वाशिंगटन काउन्टी, मायने  में चार्स हरबर्ट बेस्ट नाम का एक और महान सितारा पैदा हुआ। इनके पिता डॉक्टर थे। बेस्ट टोरोंटो विश्वविद्यालय में फिजियोलोजी और बायोकेमिस्ट्री में ग्रेजुएशन कर रहे थे। जब वे फाइनल इयर में थे तब उन्हें और नोबेल को  प्रोफेसर मेक्लियोड ने डायबिटीज की खोज हेतु एक चिकित्सक के साथ कार्य करने के लिए बुलाया। मेक्लियोड  को दोनों में से एक को चुनना था पर दोनों ही यह कार्य करना चाहते थे। इसलिए यह निर्णय हुआ कि सिक्का उछाला जायेगा। टॉस भाग्यशाली  बेस्ट ने जीता।  यह चिकित्सक और कोई नहीं बेंटिग ही थे।  दोनों युवा चिकित्सकों को प्रयोगशाला देकर मेक्लियोड छुट्टियां मनाने स्कॉटलैंड के लिए रवाना हो गये।
इस तरह बेंटिंग और बेस्ट मिले और कुत्तों पर अपने परीक्षण करने की रूपरेखा बनाने लगे। वे दोनों पक्के दोस्त बन गये थे। दोनों में उत्साह की कोई कमी नहीं थी। ये 1921 की गर्मियों के दिन थे। रोज सुबह दोनों उस छोटी सी, पुरानी लेब में पहुंच जाते। लेब ऐसी कि थी कि उसमें ठीक से सूरज का प्रकाश भी नहीं आता था, कई वर्षों से उसका रंग रोगन भी नहीं हुआ था। लेब में एक बैंच पड़ी थी और एक लकड़ी की पुरानी मेज पर कुछ शीशियां रखी हुई थी। कुत्तों का कमरा ऊपर था। कुत्तों के कमरे के बगल में एक बदबूदार छोटी सी कोठरी थी जिसमें कुछ औजार और बेकार फटे पुराने चिथड़े रखे थे। उनके पास पैसों और साधनों की भारी कमी थी। कुत्तों को सिखाने, नहलाने और उनकी ब्लड शुगर करने के लिए एक सहायक रखने के भी पैसे नहीं थे।  तब किसको मालूम था कि इस पुरानी, गंदीबदबूदार और बेकार पड़ी लेब में  एक जानलेवा और लाइलाज बीमारी डायबिटीज का उपचार की खोज होने जा रही थी।

सबसे पहले उन्होंने कुछ कुत्तों का ऑपरेशन करके उनका पेनक्रियाज निकाल लिया। ऑपरेशन के बाद कुत्तों की ब्लड शुगर बढ़ने लगी और डायबिटीज के लक्षण दिखने लगे यानी उन्हें डायबिटीज हो गई। दूसरे परीक्षण में उन्होंने कुछ कुत्तों  के पेन्क्रियास  की डक्ट को बांध दिया। जिससे पेन्क्रियास में पाचन रस बनना बंद हो गया और वह सिकुड़ने लगा। 5-6 हफ्ते  बाद उन्होने दूसरे कुत्ते का पेन्क्रियास  निकाला और उसके छोटे छोटे टुकड़े करके नमक के घोल में डाल कर फ्रीजर में जमने के लिए रख दिया। आधा जमने पर  पेन्क्रियास  को पीसा और छान कर उसका रस निकाल लिया। इसे उन्होंने आइलेटिन का नाम दिया।
अब आई शनिवार 30 जुलाई, 1921 की वो एतिहासिक सुबह, इन्सुलिन के खोज की घड़ी। उन्होंने उस रस आइलेटिन का 4 एम.एल. कुत्ते नं. 391 से 410  को इंजेक्ट किया। कुत्तों का ब्लड शुगर 0.20 से 0.12 प्रतिशत कम हो गया। उन्होंने दो घंटे बाद कुत्तों को फिर इंजेक्ट किया। कुत्ते में  डायबिटीज के लक्षण ठीक होने लगे।  चिकित्सा जगत में एक बड़ी खोज हो चुकी थी। यह दिन इतिहास के पन्नों में सुनहरी स्याही से लिखा जा चुका था। उन्होंने पूरी रिपोर्ट प्रोफेसर मेक्लियोड को तार द्वारा भेजी। तार पढ़ कर मेक्लियोड अचंभित थे। वे जान चुके थे कि एक महान खोज हो चुकी है। उसे यह बात हज़म नहीं हो रही थी कि आज के दो अनाड़ी लड़के इतनी महान खोज कर चुके थे। वे यह सोचते हुए तुरंत वापस लौटे कि कैसे इस विजय का सेहरा अपने माथे पर बांधें। 
मेक्लियोड ने आते ही ऐसा जाल बिछाना शुरू कर दिया कि खोज का पूरा श्रेय उन्हीं को मिले। उन्होंने आइलेटिनका नाम  बदल कर "इन्सुलिन रख दिया। मेक्लियोड ने उन्हें अच्छी लेब, पर्याप्त धन और सभी संभव संसाधन भी मुहैया करवाए।  उनकी मदद के लिए अपने एक बायोकेमिस्ट्री के स्कॉलर कोलिप को भी उनकी टीम में शामिल कर दिया।  कोलिप को इंसुलिन को शोधन करने का कार्य सौंपा गया।  उसने इस पूरे प्रकरण की जानकारी  टोरोंटो विश्वविद्यालय को दे दी।
उनकी खोज की खबरें  चिकित्सा जगत में चर्चित होने लगी थी। तभी मई 1922 में वाशिंगटन में हुई एक मेडिकल कान्फ्रेन्स में पूरी रिसर्च के बारे में विस्तार से चर्चा हुई।  अब बारी थी इंसुलिन के मानव परीक्षणों की।  उनके द्वारा शोधित किये गये आइलेटिनको सबसे पहले भाग्यशाली लियोनार्ड थोमस को दिया गया जिन्हें टोरेन्टो हॉस्पिटल में डायबिटीज के कारण बेहोशी की हालत में भर्ती करवाया गया था। पहली बार उसे इन्सुलिन का इन्जेक्शन दिया गया,  जिससे उन्हें  चमत्कारी लाभ हुआ और कुछ ही दिनों में पूर्णतया स्वस्थ होकर वह घर लौट गये। कई वर्षों तक स्वस्थ जीवन जीने के बाद एक मोटरसायकिल दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई।
अब बेंटिंग और बेस्ट के लिये टोरेन्टो विश्वविद्यालय परिसर में एक शोध केन्द्र स्थापित किया गया, जिसका नाम बेंटिंग और बेस्ट रिसर्च सेन्टर रखा गया। अभी भी बहुत काम होना बाकी था इन्सुलिन को शुद्ध करने की तकनीक विकसित करनी थी।  अपने परीक्षणों के लिए अब उन्हें ज्यादा आइलेटिन की आवश्यकता थी, जो कुत्तों से मिल पाना मुश्किल था। अतः उन्होंने बैलों के पेन्क्रियास से आइलेटिन निकालना शुरू किया।
लेकिन तभी नोबेल प्राइज कमेटी ने मेडीकल और फिजियोलोजी में नोबेल प्राइज के लिये बेंटिग और मेक्लियोर्ड का नाम प्रसारित हुआ। 1923 में यह सुनकर बेंटिग को बहुत बुरा लगा। इस बात पर बहुत वाद-विवाद हुआ और नोबेल प्राइज कमेटी की बहुत छीछालेदर हुई। कई बार नोबेल प्राइज कमेटी अपने पक्षपातपूर्ण रवैये के लिए विवादों में रही है। बेंटिंग ने कहा कि यदि बेस्ट को नोबल प्राइज नहीं मिलता है तो वे भी नोबेल प्राइज स्वीकार नहीं करेंगे। पर उनके मित्रों और सहयोगियो ने उसे समझाया कि पहली बार किसी कनाडा के नागरिक को नोबेल प्राइज मिलने जा रहा है, उनकी महान खोज को दुनिया के हर डायबिटीज रोगी को पहुंचाने का वास्ता दिया गया तब बड़ी मुश्किल से वे नोबेल पुरस्कार लेने के लिये तैयार हुऐ लेकिन  अपनी नोबेल प्राइज की राशि का आधा भाग अपने बेस्ट मित्र को दे दिया। मेक्लियॉड ने भी आधी इनाम की  आधी राशि कोलिप को सौंपी।
इस पूरी टीम ने "इन्सुलिन का पेटेन्ट करवाया और इससे अर्जित होने वाली धनराशि के पूरे अधिकार टोरोंटो विश्वविद्यालय को समर्पित कर दिये। इन्सुलिन की खोज के तुरंत बाद इलि लिली कंपनी ने बड़े जोर शोर से व्यावसाइक स्तर पर इन्सुलिन का निर्माण शुरू कर दिया। 

बेंटिग के उनकी प्रेमिका एडिथ से अच्छे  संबंध नहीं रहे और वे शादी भी नहीं हो सकी। तब उनकी जिंदगी में आई टोरेन्टो की रईस धनाड्य स्त्री मेरियोन रोबिन्सन, जिससे उन्होंने विवाह किया, परंतु यह विवाह  ज्यादा नहीं चला और 1929 में उनका विवाह-विच्छेद हो गया। फिर कुछ वर्षों बाद उन्हें हेनरिता बोर्न नाम की सुन्दर स्त्री से प्यार हुआजिससे उन्होंने 1939 में विवाह रचाया।        
द्वितीय विश्व युद्ध में बेंटिग पुनः कनाड़ा की सेना में भर्ती हो गये और 1941 में मेडिकल मिशन पर न्यूफाउंडलेंड से इंग्लेंड जाते समय प्लेन क्रेश होने के कारण मृत्यु हो गयी।  बेंटिग की मृत्यु के बाद बेस्ट ने टोरेन्टो विश्वविद्यालय के बेंटिग और बेस्ट रिसर्च सेन्टर का संचालन पुनः सम्भाला।  वहां उन्होंने हिपेरिन पर काफी शोध किया और 1978 में उनकी भी मृत्यु हो गयी।

कॉलेस्ट्रोल का चक्रव्यूह

कोलेस्ट्रोल मोम के समान एक रवेदार सफेद स्टीरोल है जो सभी स्तनधारियों की कोशिकाओं की झिल्लियों और रक्त में पाया जाता है। कॉलेस्ट्रोल ग्रीक शब्दों कोले (Bile), सिटिरोज (Soकॉलेlid) और ओल (Alcohol) से बना है। 1769 में फ्रेंकोस पोल्टियर ने पित्ताशय की पथरी में पहली बार कॉलेस्ट्रोल को चिन्हित किया था। यह कोशिकाओं की झिल्लियों का प्रमुख घटक है जो कोशिकाओं को वांछित पारगम्यता (Permeability) और तरलता (Fluidity) प्रदान करता है। यह पित्त अम्ल (Bile salts), स्टिरोइड तथा सेक्स हार्मोन्स, और वसा में घुलनशील विटामिन-ए, विटामिन-डी, विटामिन-ई और विटामिन-के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं।


कॉलेस्ट्रोल सभी जीवधारियों के लिए अति आवश्यक है और नियमित शरीर में बनता रहता है। एक व्यक्ति सामान्यतः 1 से 1.25 ग्राम कॉलेस्ट्रोल का निर्माण रोजाना करता है। शरीर में कुल कॉलेस्ट्रोल की कुल मात्रा लगभग 35 ग्राम होती है। आहार से हमें औसतन 200-300 मि.ग्रा. कॉलेस्ट्रोल रोज प्राप्त होता है। हमारा शरीर कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को संतुलित रखते की कौशिश करता है, इसीलिए शरीर । यकृत कॉलेस्ट्रोल का विसर्जन पित्त-अम्ल के रूप में करता है जिसका अधिकतर भाग छोटी आंत में फिर से रक्त में अवशोषित हो जाता है और पुनर्चक्रित (Recycle) होता है। वानस्पतिक स्टीरोल और फाइबर की उपस्थिति में यह अवशोषण कम हो जाता है और फाइबर की अनुपस्थिति अवशोषण को बढ़ाती है।


कॉलेस्ट्रोल कोशिका की भित्तियों या झिल्लियों के निर्माण और रखरखाव के लिए अतिआवश्यक है और उनको तरलता प्रदान करता है। कॉलेस्ट्रोल का हाइड्रोक्सिल ग्रुप (OH group) फोस्फोलिपिड और स्फिंगोलिपिड के ध्रुवीय सिर के सम्पर्क में रहते हैं जबकि बड़ी स्टिरोइड तथा ङाइड्रोकार्बन लड़ अन्य वसाअम्लों की लड़ों के साथ भित्ती में धंसी रहती है। भित्तियों की यह संरचना प्रोटोन्स (Positive hydrogen ions) और सोडियम ऑयन्स की पारगम्यता को कम करती है। कॉलेस्ट्रोल कोशिका में संकेतों की आवाजाही जैसे कोशिकीय संकेतन (cell signaling) और नाड़ी संदेश प्रवाह के लिए भी जरूरी है। कॉलेस्ट्रोल भित्तियों के केवियोला और क्लेथ्रिन युक्त गड्डों की संरचना एवम् कार्यप्रणाली के लिए भी आवश्यक है। कॉलेस्ट्रोल कोशिकीय संकेतन हेतु भित्तियों में वसीय नौकाओं (Lipid rafts) का निर्माण भी करते हैं।

कॉलेस्ट्रोल कोशिकाओं की कई चयापचय क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यकृत में कॉलेस्ट्रोल पित्त-अम्ल बनाने में सहायक है, जो पित्ताशय में एकत्रित होता रहता है। पित्त आहार पथ में वसा तथा विटामिन ए, डी, ई एवम् के को घुलनशील बनाता है और उनके अवशोषण में सहायता देता है।

कॉलेस्ट्रोल विटामिन-डी एवम् एडरीनल ग्रंथि से स्रावित कोर्टिजोल तथा एल्डोस्टिरोन और सेक्स हार्मान प्रोजेस्ट्रोन, इस्ट्रोजन और टेस्टोस्टिरोन के निर्माण में भी सहायता देते हैं। शुद्ध कॉलेस्ट्रोल एक एन्टी-ऑक्सीडेन्ट भी है।

आहार स्रोत

जीवधारी वसा ट्राइग्लीसराइड्स, फोस्फोलिपिड और कॉलेस्ट्रोल का जटिल मिश्रण होते हैं। कॉलेस्ट्रोल के मुख्य स्रोत मक्खन, पनीर, अंडा, अंडे की ज़र्दी, मुर्गा, मांस, कलेजी और मछली हैं। मानव दूध में भी पर्याप्त मात्रा में कॉलेस्ट्रोल होता है। एक विशेष बात यह है कि अलसी में कॉलेस्ट्रोल से मिलता जुलता तत्व फाइटोस्टिरोल होता है जो रक्त में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम करता है।


आहार और जीवनशैली में सुधार लाकर कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम की जा सकती है। जीवधारी वसा का सेवन कम करने से कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम होती है। जो व्यक्ति कॉलेस्ट्रोल कम करना चाहते हैं, उन्हें कैलोरी का सिर्फ 7% संतृप्त वसा से लेना चाहिये और आहार में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा 200 मि.ग्रा. से कम रखने की तलाह दी जाती है।

आजकल इस भ्रांति पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है कि आहार में कॉलेस्ट्रोल कम लेने से हृदयरोग और हृदयाघात का जोखिम कम होता है, क्योंकि आहार में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा कम होने की सूरत में शारीरिक आवश्यकता की आपूर्ति एवम् संतुलन बनाये रखने के लिए शरीर ज्यादा कॉलेस्ट्रोल बनाता है।

शरीर की कुल आवश्यकता का 20-25% कॉलेस्ट्रोल यकृत में बनता है। यकृत के अलावा यह आंतों, एडरिनल ग्रंथि और प्रजनन अंगों में भी बनता है। कॉलेस्ट्रोल के निर्माण की प्रक्रिया में पहले एसीटाइल केन्ज़ाइम-ए (Acetyl CoA) और एसीटोएसीटाइल कोएन्ज़ाइम-ए (Acetoacetyl-CoA) के एक एक अणु किण्वक एचएमजी कोएन्ज़ाइम-ए सिंथेज की मदद से निर्जलीकृत होकर 3-हाइड्रोक्सिल-3-मिथाइलग्लुटेराइल कोएन्जाइम-ए (3-hydroxy-3-methylglutaryl CoA) बनाते हैं। किण्वक एचएमजी कोएन्ज़ाइम-ए रिडक्टेज (HMG-CoA reductase) की सहायता से यह अपघटित होकर मेवेलोनेट में परिवर्तित होता है। मेवेलोनेट एटीपी के दो अणु और दो एंजाइम मेवलोनेट काइनेज तथा फोस्फोमेवलोनेट काइनेज का मदद द्वारा 5-पायरोफोस्फोमेवलोनेट बनाता है, जो पाइरोफोस्फोमेवलोनेट डिकार्बोक्सीलेज एंजाइम की मदद से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड छोड़ कर आइसोपेन्टेनाइल पाइरोफोस्फोट में परिवर्तित होता है। यह कई रसायनिक क्रियाओं का प्रमुख घटक है। इसके तीन अणु मिल कर एंजाइम आइसोपेन्टेनाइल पाइरोफोस्फेट आइसोमरेज़ की मदद से फर्नेसाइल पाइरोफोस्फोट बनाते हैं। एन्डोप्लाज़मिक रेटिकुलम में फर्नेसाइल पाइरोफोस्फोट के दो अणु जुड़ कर स्किवेलीन सिंथेज़ की मदद लेकर स्क्वेलीन बनाते हैं। स्क्वेलीन एंजाइम स्क्वेलीन मोनोक्सीजिनेज की मदद से स्क्वेलीन-2,3-एपोक्साइड बनाता है। जो 2,3-ऑक्सिडोस्क्वेलीन लेनोस्टिरोल साइक्लेज़ स्क्वेलीन को लेनोस्टिरोल में बदलते हैं। आखिर में लेनोस्टिरोल से कॉलेस्ट्रोल बनता है। कॉलेस्ट्रोल तथा फैटी एसिड के निर्माण और नियंत्रण सन्बंधी इस महान खोज के लिए कोनार्ड ब्लॉक और फियोडोर लाइनेन को 1964 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था।


शरीर में कॉलेस्ट्रोल का निर्माण सीधा शरीर में कॉलेस्ट्रोल का मात्रा पर निर्भर करता है। शरीर में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को संतुलित बनाये रखने के लिए एक विशिष्ट नियंत्रण प्रणाली कार्य करती है। हमारे आहारशास्त्री इस संतुलन के रहस्य को पूरी तरह समझने में जुटे हैं। यदि भोजन द्वारा कम कॉलेस्ट्रोल लिया जाये तो शरीर में ज्यादा कॉलेस्ट्रोल बनेगा और यदि भोजन में ज्यादा कॉलेस्ट्रोल लिया जाये तो शरीर में कम कॉलेस्ट्रोल बनायेगा। कॉलेस्ट्रोल निर्माण के नियंत्रण की मुख्य कुंजी एन्डोप्लाज्मिक रेटिकुलम में एस.आर.इ.बी.पी. स्टीरोल रेगुलेट्री एलीमेंट-बाइन्डिंग प्रोटीन 1 और 2 (SREBP sterol regulatory element-binding protein 1 and 2) है।


कॉलेस्ट्रोल की उपस्थिति में SREBP प्रोटीन दो अन्य प्रोटीन स्केप या एस.आर.इ.बी.पी.-क्लीवेज-एक्टिवेटिंग प्रोटीन (SCAP or SREBP-cleavage-activating protein) और इनसिग-1 (Insig1 or site-1 and -2 protease) से जुड़े रहते हैं। जब कोशिका में कॉलेस्ट्रोल कम होता है तो Insig-1 SREBP-SCAP complex से अलग हो कर उन्हें गोलगी संयंत्र में जाने देते हैं। कॉलेस्ट्रोल कम होने से SCAP दो एन्ज़ाइम S1P and S2P (site-1 and -2 protease) को SREBP का विभाजन करने हेतु आदेश देते हैं। ये दोनों एन्ज़ाइम S1P and S2P SREBP पर कैंची चला कर उसके टुकड़े कर देते हैं। विभाजित SREBP कोशिका के नाभिक में प्रवेश करता है जहां वह एस.आर.ई. (Sterol regulatory Element) से जुड़ कर LDL (लो डेंसिटी लाइपोप्रोटीन रिसेप्टर) अभिग्राहक और एच.एम.जी. कोएन्जोइम-ए रिडक्टेज के लिप्यंतरण को उत्तेजित करते हैं। LDL (लो डेंसिटी लाइपोप्रोटीन) अभिग्राहक रक्त में घूमने वाले LDL का सफाया करते हैं और एच.एम.जी. कोएन्जोइम-ए रिडक्टेज कॉलेस्ट्रोल का आंतरिक स्राव बढ़ाते हैं। यदि कोशिका में कॉलेस्ट्रोल ज्यादा हो तो SREBP इनसिग और SCAP से जुड़े रहते हैं, ऐंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम में ही बने रहते हैं और गोलगी संयंत्र में प्रवेश करने में असमर्थ होते हैं। यह संकेतन पथ डॉ.मिशेल एस. ब्राउन और डॉ. जोसेफ एल. गोल्डस्टीन ने स्पष्ट किया था, जिसके लिए उन्हें 1985 में नाबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उन्होंने यह भी मालूम किया था कि किस तरह SREBP पथ लिपिड निर्माण, चयापचय और ऊर्जा से सम्बंधित जीन्स को नियंत्रित करते हैं। कॉलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक होने पर उसका निर्माण स्थगित हो जाता है।

संक्षेप में कॉलेस्ट्रोल का स्तर कम होने से SREBP HMG-CoA reductase and LDL receptor का लिप्यंतरण उत्तेजित करते हैं।

कॉलेस्ट्रोल परिवहन और अवशोषण का नियंत्रण

कॉलेस्ट्रोल पानी में मुश्किल से थोड़ा सा ही कम घुल पाता है और जलीय माध्यम रक्त में कॉलेस्ट्रोल का प्रवाह बहुत ही सिमित होता है। रक्त में कॉलेस्ट्रोल का मुक्त प्रवाह जटिल संरचना वाले गोलाकार सूटकेस, जिनको लाइपोप्रोटीन कहते हैं, के द्वारा होता है जिनका बाहरी खोल उभयशील या एम्फिफीलिक (ग्रीक भाषा में amphis = both और philic = प्यार या दोस्ती यानी इनमें पानी में घुलने और न घुलने दोनों ही गुण होते हैं) प्रोटीन तथा लिपिड से बना होता है, जिनकी बाहरी सतह जल घुलनशील और अंदर की सतह वसा घुलनशील होती है। लाइपोप्रोटीन एक प्रकार ट्राइग्लीसराइड और कॉलेस्ट्रोल इस्टर अंदर रहते हैं और फोस्फोलिपिड और कॉलेस्ट्रोल बाहरी उभयशील सतह में रहते हैं। लाइपोप्रोटीन कॉलेस्ट्रोल को भ्रमण हेतु घुललशील माध्यम उपलब्ध करवाने के साथ साथ कॉलेस्ट्रोल और लिपिड को अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचने के संकेत भी देता है।


इस हेतु लाइपोप्रोटीन कई प्रकार के होते हैं जिन्हें घनत्व के आधार पर काइलोमाइक्रोन (chylomicron), बहुत कम घनत्व लाइपोप्रोटीन (VLDL), मध्यम घनत्व लाइपोप्रोटीन (IDL), कम घनत्व लाइपोप्रोटीन (LDL) और अधिक घनत्व लाइपोप्रोटीन (HDL) नाम से वर्गीकृत किया है। सभी लाइपोप्रोटीन में कॉलेस्ट्रोल एक ही तरह का होता है। हां कहीं यह मुक्त कॉलेस्ट्रोल के रूप में होता है तो कहीं कॉलेस्ट्रोल इस्टर के रूप में होता है। यदि लाइपोप्रोटीन में प्रोटीन


की मात्रा कम हो तो उसका घनत्व कम माना जाता है। विभिन्न लाइपोप्रोटीन में ऐपो-लाइपोप्रोटीन होता है, जो कोशिका की भित्तियों पर स्थित अभिग्राहक के लिए लाइगेन्ड (यह एक प्रकार का हैंडल होता है जो किसी अभिग्राहक Receptor से जुड़ना की क्षमता रखता है) का कार्य करता है। इस तरह ऐपो-लाइपोप्रोटीन कॉलेस्ट्रोल परिवहन के आरंभिक और गन्तव्य कोशिकीय ठिकाने को इंगित करते हैं।


काइलोमाइक्रोन का घनत्व सबसे कम होता है, इसमें ऐपो-लाइपोप्रोटीन बी-48, ऐपो-लाइपोप्रोटीन सी और ऐपो-लाइपोप्रोटीन ई होते हैं। ये वसा को आंतों से पैशियों और अन्य ऊतकों तक पहुंचाते हैं, जिन्हें ऊर्जा और फैट के निर्माण हेतु वसा अम्लों की जरूरत होती है। यदि पैशियों में कॉलेस्ट्रोल बचता है तो वह वापस यकृत पहुंचता है।

VLDL में ट्रायसिलग्लीसरोल और कॉलेस्ट्रोल होता है और यह यकृत में बनता है। इस अणु के खोल पर ऐपो-लाइपोप्रोटीन बी-100 और ऐपो-लाइपोप्रोटीन ई होते हैं। IDL का अंत दो तरह से होता है। आधे तो ये पुनः यकृत में चले जाते हैं तथा आधे रक्त में ट्रायसिलग्लीसरोल छोड़ते रहते हैं और अंततः LDL में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसमें सबसे ज्यादा कॉलेस्ट्रोल होता है।


इस तरह LDL अणु रक्त में कॉलेस्ट्रोल परिवहन का मुख्य वाहक है। हर LDL अणु में कॉलेस्ट्रोल इस्टर के 1500 अणु होते हैं। LDL के खोल में ऐपो-लाइपोप्रोटीन बी-100 का एक ही अणु होता है जिसे परिधीय LDL रिसेप्टर या अभिग्राहक पहचान लेते हैं और जुड़ कर क्लेथ्रिन युक्त गड्डों में एकत्रित हो जाते हैं। LDL और उसके अभिग्राक दोनों एन्डोसाइटोसिस क्रिया द्वारा कोशिका में एक थैली का रूप लेकर लाइसोजोम से जुड़ते हैं, जो लाइसोजाइमल एसिड लाइपेज़ एन्जाइम की सहायता से कॉलेस्ट्रोल इस्टर को हाइड्रोलाइज करते हैं। कोशिका के भीतर कॉलेस्ट्रोल से भित्तियों का निर्माण होता है या कॉलेस्ट्रोल इस्टर के रूप में संचित होता हैं।

LDL रिसेप्टर का निर्माण SREBP द्वारा नियंत्रित होता है। यही कोशिका में कॉलेस्ट्रोल के निर्माण के भी नियंत्रित करता है। जब कोशिका में पर्याप्त कॉलेस्ट्रोल होता है, तो LDL रिसेप्टर का निर्माण बाधित होता है और LDL अणु नये कॉलेस्ट्रोल को ग्रहण नहीं कर पाता है। इसके विपरीत यदि कोशिका में कॉलेस्ट्रोल का अभाव हो तो LDL रिसेप्टर का निर्माण ज्यादा होता है। यदि यह प्रक्रिया अनियंत्रण हो जाये तो रक्त में बिना LDL के रिसेप्टर के भी LDL अणुओं की संख्या बढ़ जाती है। ये LDL अणु ऑक्सीकृत होकर माक्रोफाज द्वारा खा लिए जाते हैं और फोम कोशिकाएं बनाते हैं। ये फोम कोशिकाएं रक्त-वाहिकाओं की भित्तियों से चिपक जाती हैं और ऐसे एथरोस्क्लिरोटिक प्लॉक बनने की शुरूआत होती है। ये प्लॉक के कारण ही हृदयाघात और स्ट्रोक होता है और इसीलिए LDL कॉलेस्ट्रोल को बुरे कॉलेस्ट्रोल के नाम से जाना जाता है।

HDL अणु कॉलेस्ट्रोल को पुनः यकृत में विसर्जन हेतु या अन्य ऊतकों में हार्मोन्स के निर्माण हेतु पहुंचाते हैं। इसे विपरीत कॉलेस्ट्रोल परिवहन कहते हैं। शरीर में HDL कॉलेस्ट्रोल का ज्यादा होना अच्छे स्वास्थ्य की निशानी माना जाता है जबकि LDL कॉलेस्ट्रोल का एथेरोस्क्लिरोसिस से गहरा सम्बंध है।

कॉलेस्ट्रोल का चयापचय, विसर्जन और पुनर्चक्रता

कॉलेस्ट्रोल यकृत में ऑक्सीकृत होकर पित्त-अम्ल बनाता है, जो ग्लाइसीन, टॉरीन, ग्लुकोरोनिक एसिड या सल्फेट से जुड़ जाते हैं। जुड़े हुए और मुक्त पित्त-अम्ल पित्त-रस के रूप में विसर्जित हो जाते हैं। इनकी अधिकतर मात्रा लगभग 95% पुनः अवशोषित हो जाती है और पुनः चक्रित होती है, शेष मल द्वारा बाहर निकल जाती है।

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